विभिन्न रामायण एवं गीता >> भगवती गीता भगवती गीताकृष्ण अवतार वाजपेयी
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गीता का अर्थ है अध्यात्म का ज्ञान ईश्वर। ईश्वर शक्ति द्वारा भक्त को कल्याण हेतु सुनाया जाय। श्रीकृष्ण ने गीता युद्ध भूमि में अर्जुन को सुनाई थी। भगवती गीता को स्वयं पार्वती ने प्रसूत गृह में सद्य: जन्मना होकर पिता हिमालय को सुनाई है।
द्वितीयोऽध्याय : शरीर की नश्वरता एवं अनासक्तयोग का वर्णन
हिमालय उवाच
विद्या आ कीदृशी मातर्यतो मुक्तिः प्रजायते।
आत्मा वा किं स्वरूपश्च तन्मे बूहिमहेश्वरि।।1।।
हिमालय ने कहा-माता! वह विद्या कैसी है जिससे मुक्ति मिलती है? महेश्वरी! आत्मा क्या है? उसका स्वरूप क्या है? मुझे बतायें।।1।।
श्री पार्वत्युवाच
श्रृणु सात प्रवक्ष्यामि या संसारनिवर्तिका।
विद्या सस्थाः स्वरूप हि संक्षेपेण महामते।।2।।
बुद्धिप्राणमनोदेहाहंकृतीन्द्रियत पृथक्।
अद्वितीयश्चिदात्माह शुद्ध एवेति निश्चितम्।।3।।
संवेत्ति येन ज्ञानेन विद्या तद्धयानमुध्यते।
आत्मा निरामयः शुद्धी जन्धनाशादिवजिंत।।4।।
श्री पार्वती जी ने कहा-पिताजी! महामते! ध्यान दें। संसार से मुक्ति दिलाने वाली जो विद्या है, उसके स्वरूप का मैं अति सं क्षेप में वर्णन कर रही हूँ। बुद्धि, प्राण, मन, देह, अहंकार तथा दस इन्द्रियों से पृथक् शुद्ध एवं अद्वितीय चित्स्वरूप आत्मा मैं ही हूँ ऐसा पूर्णतः निश्चित है; जिस ज्ञान द्वारा आत्मस्वरूप का पूर्णतः अवबोध होता है वही विद्या है और उस विद्या को ध्यान भी कहा जाता है। आत्मा निर्विकार, विशुद्ध तथा जन्म-मरण विकारों से रहित है।।2-4।।
बुद्धयाद्युपाधिरहितश्चिदानन्दात्मको मतः।
आनन्दः सुप्रभः पूर्णः सत्यज्ञानादिलक्षणः।। 5।।
एक एवाद्वितीयश्च सर्वदेहगतः परः।
स्यप्रकाशेन देह्मदीन् भासयर सुसमास्थितः।।6।।
आत्मा बुद्धि आदि उपाधियों से रहित, चिदानन्दस्वरूप, आनन्दमय, परम प्रभायुक्त, पूर्ण एवं सत्य ज्ञानादि लक्षणों वाला है। आत्मा एकमात्र अद्वितीय सर्वश्रेष्ठ स्वप्रकाश से समस्त प्राणियों के सूक्ष्म देहादि को प्रकाशित करते हुए पूर्ण रूप से सबके भीतर विराजमान है।।6-7।।
इत्यात्मनः स्वरूप ते गिरिराज मयोदितम्।
एवं विचिन्तयेब्रित्यमात्मानं सुसमाहितः।।7।।
हे पर्वतराज! इस तरह मैंने आपसे आत्मा के स्वरूप का वर्णन कर दिया। मनुष्य को समाहित चित्त होकर ऐसे लक्षण वाले आत्मा का नित्य चिन्तन करना चाहिए।
अनात्मनि शरीरादावात्मबुद्धिं विवर्जयेत्।
रागद्वेषादिदोषाणां हेतुभूता हि सा यतः।।8।।
रागद्वेशदिदोषेभ्यः सदोषं कर्म सम्भवेत्।
ततः पुनः संसृतिश्च तस्मात्तां परिवर्जयेत्।।9।।
शरीरादि अनात्म पदार्थों में आत्मबुद्धि का परित्याग कर देना चाहिए, क्योंकि उस प्रकार की बुद्धि राग-द्वेषादि का मूल कारण है। राग द्वेषादि दोषों से दोषपूर्ण कर्म ही सम्भव हैं। उनसे प्राणी जन्म-मरण की प्रक्रिया से सतत् बँधा रहता है। अतः शरीरादि अनात्म पदार्थों में उस आत्मबुद्धि का परित्याग कर देना चाहिए।।8-9।।
हिमालय उवाच
अशुभादृष्टजनका रागद्वेषादयः शिवे।
कथं जनैः परित्याज्यास्तन्मे स्वं वक्तर्ह्मइस।।1०।।
कुर्वन्ति येऽपकाराणि कथं तान् सहते जनः।
तेषु रागश्च विद्वेषः कथं वा न भवेत्तयोः।।11।।
हिमालय ने कहा-शिवे! राग द्वेषादि से पापात्मक अशुभ अदृष्ट पैदा होता है, उसका परित्याग प्राणि किस तरह करें। इसे आप कृपया समझाइये; जो जन दूसरे मनुष्य का अपकार करते हैं उनके प्रति (अपकारी के प्रति) वह व्यक्ति सहिष्णुता का भाव कैसे रखे? तथा उनके प्रति उस व्यक्ति में कैसे इष्टानिष्ट विषयक राग और द्वेष न ही।।1०-11।।
श्री पार्वत्युवाच
अपकारः कृतः कस्य तदेवाशु विचारयेत्।
विचार्यमाणे तस्मिंश्च द्वेष एव न जायते।।12।।
पञ्चभूतात्मको देशे मुक्तो जीवो यतः स्वयम्।
वहिनना दह्यते वापि शिवाद्यैर्भक्षितोऽपि वा।।1३।।
श्री पार्वतीजी ने कहा-अपकार किसका किया गया-इस विषय पर विचार करना चाहिए। उस पर विचार करने से द्वेष उत्पन्न ही नहीं होगा। पञ्च महाभूतों से यह शरीर बना है जिससे यह जीव स्वयं ही अलग है। यह शरीर अन्त में अग्नि द्वारा जला दिया जाता है अथवा सियार आदि द्वारा खा लिया जाता है किन्तु आत्मा नहीं। जिसे इस प्रकार का ज्ञान है उसका भला कौन-सा अपकार हो सकता है।।12-13।।
तथापि यो विजानाति कोऽपकारोऽस्ति तस्य वै।
आत्मा शुद्धः स्वयंपूर्णः सच्चिदानन्दविग्रहः।।14।।
न जायते न मियते निर्लेपो न च दुःखभाक्।
विच्छिद्यमाने देलेपि नापकारोऽस्य जायते।।15।।
अपने आप में ही पूर्ण और सच्चिदानन्द स्वरूप वाला यह विशुद्ध आत्मा न जन्म लेता है और न ही मरता है, न सुख-दुःख आदि द्वन्द्वों में संलिप्त होता है, न कष्ट ही भोगता है। इसलिये देह के काटे जाने पर भी इस आत्मा का कोई अपकार नहीं होता।।14-15।।
यथा गेहान्तरस्थस्य नभसः क्यापि लक्ष्यते।
ग्रहेषु दह्यमानेषु गिरिराज तथैव हि।।16।।
हन्ता चेन्मन्यते हन्तुं हतश्चेमन्यते हतः।
तावुभौ भान्तहृदयौ नायं हन्ति न हन्यते।।17।।
पर्वतराज! जिस प्रकार घर के भीतर अवस्थित आकाश पर घर के जलने का कोई प्रभाव नहीं पड़ता, उसी प्रकार शरीर में अवस्थित आत्मा पर शरीर के काटने आदि का कोई प्र भाव नहीं दिखता है जो (स्वयं) इस आत्मा को मारने वाला मानता है तथा जो शरीर के मारे जाने पर आत्मा को मारा गया समझता है, यथार्थ में वे दोनों ही बन अमित चित्त वाले हैं। यह आत्मा न मारता है और मारा जाता है।।16-17।।
स्वस्वरूपं विदित्यैवं द्वेष त्यक्त्वा सुखी भवेत्।
द्वेषमूलो मनस्तापो द्वेषः संसारखण्डनम्।
मोक्षविलकरो द्वेवस्तं यत्नात्यरिवर्जयेत्।।18/1/2।।
अपने स्वरूप को इस प्रकार जान कर तथा द्वेष त्यागकर मनुष्य सुखी हो जाय। द्वेष मन के सन्ताप (कष्ट) का प्ल कारण है, द्वेष जगत सम्बन्धों को भक् करने वाला है तथा द्वेष मोक्ष प्राप्ति में विघ्नत्पन्न करनेवाला है। इसलिये यत्नपूर्वक द्वेष का त्याग कर देना चाहिए।।18७।।
हिमालय उवाच
देहस्यापि न चेद्देवि न जीवस्य परात्मनः।।19।।
नापकारोऽत्र विद्येत नैतौ दुःखस्य भागिनौ।
तत्कस्य जायते दुःख यत्साक्षादनुभूयते।।2०।।
अन्यो वा कोऽस्मि देहेऽस्मिन् दुःखभोक्ता महेश्वरि।
एतन्धे बूहि तत्त्वेन मयि ते यद्यनुग्रहः।।21।।
हिमालय ने कहा-हे भगवती! अगर शरीर तथा परमात्मस्वरूप जीव का इस जगत में अपकार नहीं होता तथा ये दोनों ही दुःख के भागी नहौ होते तब फिर जिस दुःख का प्रत्यक्ष (साक्षात्) अनुभव होता है, वह किसको होता है? हे महेश्वरि! इस शरीर में दुःख भोग करने वाला अन्य कौन है? अगर मुझ पर आपकी कृपा है तब आप मुझको इस विषय में यथार्थ रूप से उपदेशित करें।।19-21।।
श्री पार्वत्युवाच
नैव दुःखं हि देहस्य नात्मनो'पि परात्मनः।
तथापि जीवो निर्लेपो मोहितो मम मायया।।22।।
सुख्यहं दुःख्यहं चैव स्ययमेवाभिमन्यते।
अनाद्यविद्या सा माया जगन्मोहनकारिणी।।2३।।
जातमात्र हि सम्बद्धस्तया संजायते पितः।
संसारी जायते तेन रागद्वेषादि संकुलः। 24।।
श्री पार्वती जी ने कहा-न इस देह को और न इस परमात्म स्वरूप आत्मा को ही दुःख हो, पुनश्च यह विशुद्ध आत्मा मेरी माया से मोहित होकर स्वयं मैं सुखी हूँ, मैं दुःखी हूँ ऐसा मानता है। वह माया अनादि, अविद्यास्वरूपिणी एवं विश्व को मोहित करने वाली है। पिताजी! वह आत्मतत्त्व उत्पन्न होते ही उस माया से आबद्ध हो जाता है तथा उसी से वह रागद्वेषादि विकारों से युक्त होकर संसारी हो जाता है।।22-24।।
आत्मा स्वलिंग तु मनः पीरपूग्रह्य मह्मते।
निलीना वासना यत्र संसारे वर्ततेऽवशः।।25।।
महामते। यह आत्मा अपने लिक् रूप मन, जिसमे वासना निहित रहती है, को धारण करके विवश सा हुआ जगत में व्यवहार करता है।।25।।
विशुद्धः स्फटिको यद्वद्रक्तपुष्पसमीपतः।
तत्तद्वर्णयुक्तो भाति वस्तुतो नास्ति रञ्जनम्।।26।।
बुद्धीन्द्वियादिसामीष्यादात्मनोमऽपि तथा गतिः।
मनोमुद्धिरहंकारो जीवस्य सहकारिण।।27।।
स्वकर्मवशतस्तात फलभोक्तार एव ते।
सर्वं वैषयिकं तात सुखं वा दुःखमेव वा।।28।।
त एव भुज्जते नात्मा निर्लेपः प्रभुख्ययः।
लाल रंग के पुष्प के पास में स्थित निर्मल स्फटिक उसके सानिध्य के कारण पुष्प रंग से लाल ही मालूम होता है, जबकि यथार्थ में उसमें रंग विद्यमान नहॉ रहता। बुद्धि, इन्द्रिय, आदि की समीपता के कारण आत्मा की वही दशा (गति) होती है। मन, बुद्धि एवं अहंकार जीव के सहयोगी है। पिताजी! स्व-स्व कर्माधीन होकर वे ही कर्मफल का भोग करते हैं। वे सभी समस्त विषयात्मक सुखों एवं दुःखों का भोग करते हैं, आत्मा भोग नहीं करता, वह आत्माप्रभुतासम्पन्न, विकाररहित और विशुद्ध है।।26-28।।
सृष्टिकाले पुनः पूर्ववासनावासितैः सह।
जायते जीव एवं हि वसत्याभूतसम्प्लवम्।
ततो ज्ञान विचारेण त्यक्त्वा मोहं विचक्षणः।।29-३०।।
सुखी भवेन्मह्मराज इष्टानिष्टोपपत्तिषु।
सृष्टि काल में यह जीव पूर्वजन्म की वासनाओं से संयुक्त अन्तःकरण के साथ उत्पन्न होता है तथा यह जीव प्रलय-पर्यन्त सृष्टि में निवास करता है। अतः महाराज! विद्वान को चाहिए कि ज्ञान-विचार से इच्छित और अनिच्छि पदार्थों की प्राप्ति में मोह का परित्याग कर सुखी हो जाय।।29-३०।।
देहमूलो मनस्तापो देहः संसारकारणम्
देहः कर्मसमुत्यन्नः कर्म च द्विविध मतम्।
पापं पुण्यं च राजेन्द्र तयोरंशानुसारतः।।
देहिनः सुखदुःखं स्यादलंयं दिनरात्रिवत्।।31-३2/1/2।।
यह शरीर मन के सन्ताप का मूल है, यह शरीर जगत का कारण भी है। यह शरीर कर्म से उत्पन्न होता है। कर्म पाप और पुण्य भेद से दो प्रकार का होता है। राजेन्द्र! उन्ही पाप-पुण्यों के अंशानुसार जीव को सुख-दुःख प्राप्त होते हैं। दिन-रात की तरह इन सुख और दुःख का उल्लंघन नहीं किया जा सकता है।।32-32।।
स्यर्गादिकामः कृयापि पुण्यं कर्मविधानतः।
प्राप्य स्वर्गं पतत्याशु भूयः कर्म प्रचोदितम्।।3३।।
तस्मात्सत्संगमं कृत्वा विद्याभ्यासपरायण।
विमुक्तसक्ः परमं सुखमिच्छंद्विचक्षणः।।३4।।
स्वर्गादि प्राप्ति की अभिलाषा करने वाला विधानपूर्वक पुण्य कर्म करके स्वर्ग प्राप्त पश्चात् शीघ्र ही कर्म से प्रेरित होकर फिर से मृत्युलोक में गिरता है। इसलिये विद्वान को आसक्ति का त्याग करते हुए विद्याभ्यास परायण होकर सत्संग करके परम सुख की कामना रखनी चाहिए।।३2-34।।
ॐ श्रीभगवती गीतासूपनिषत्सु तसविद्यायां योगशास्त्रे श्री पार्वतीहिमालय संवादे ब्रह्मविद्योपदेश वर्णनं नाम द्वितीयोऽध्यायः।
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